कागज़ की कश्तियो पे सबकी निगाह होती है !
खुद नदी भी कभी इन के लिए कत्लगाह होती है !
रंग हर रोज़ ही दिखता है सिआसत का नया !
सुर्ख होती है कभी और कभी तो ये स्याह होती है !!
पूछलो गैर से भी हाले दिल ज़रा इक दिन !
जीस्त उस की भी तो अपनी ही तराह होती है !!
आ के मंजिल पे ख़तम होती है भटकन सारी !
साथ अपनों का मिले बस येही चाह होती है !!
हाँ अदावत तो गुनाह है ये हकीकत है मगर !
अब तो उल्फत भी मेरे दोस्त गुनाह होती है !!
क्या गिला राह्जनों से करें हम "ज्योति" !
कभी रहबरी राहजनी से भी स्याह होती है !!
खुद नदी भी कभी इन के लिए कत्लगाह होती है !
रंग हर रोज़ ही दिखता है सिआसत का नया !
सुर्ख होती है कभी और कभी तो ये स्याह होती है !!
पूछलो गैर से भी हाले दिल ज़रा इक दिन !
जीस्त उस की भी तो अपनी ही तराह होती है !!
आ के मंजिल पे ख़तम होती है भटकन सारी !
साथ अपनों का मिले बस येही चाह होती है !!
हाँ अदावत तो गुनाह है ये हकीकत है मगर !
अब तो उल्फत भी मेरे दोस्त गुनाह होती है !!
क्या गिला राह्जनों से करें हम "ज्योति" !
कभी रहबरी राहजनी से भी स्याह होती है !!
वाह्…………बहुत सुन्दर ख्याल्।
ReplyDeleteबहुत खूब! बहुत सुन्दर गज़ल..हरेक शेर बहुत उम्दा..
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