मैंने कल सोचा अपने मौन में ये साँस कैसे आती जाती है ? क्यों नहीं भूल जाती आना कैसे अनवरत ये आती जाती है हर साँस से होता है नया जन्म जिसने दी हैं साँस हमें सोचो क्या कभी उसने भुलाया है हमें हम जन्म से पहले याद करते थे लटके थे जब माँ की गर्भाग्नी में फिर आये हम दुनियां में तब हम भूल गए अपने सरे वादे और बना ली अपनी सोच से अपनी एक अलग ही दुनियाँ जब गिरे या हमें चोट लगी याद आये हमें अपने कर्म पढने लगे तब कोई धर्मग्रन्थ लेकिन न चले उसकी याद के पथ अब कहो साथ क्यों दे वो भला हर कोई जानता है ये , है वह परमात्मा मेरा अपने ही अन्दर पर कोई मानता नहीं ये सच इसलिए भटकता है वो बस कैद अपनी सोच के दायरों में काटता है जीने की अपनी सजा और देता है दोष सिर्फ उसको सौंप कर देखो तुम खुद को हर कदम उसको दोस्त पाओगे यही है जीने का सलीका सच्चा आओ मेरे खुदा मैं साथ चलूँ तेरे हाथ में हाथ देकर मैं
हे! पुरुष जब जाते हो बाहर तुम और मिलते हो किसी मेनका से तब हो जाती हूँ मैं तुम्हारे लिए घर की मुर्गी दाल जैसी ही कोई क्या तुम्हारे मन ने भी पूछा है कभी तुमसे ये कठोर प्रश्न घर मे मुर्गी के होते हुए भी बाहर की दाल क्यूँ भाति है तुम अक्सर बोलते हो मुझसे जिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहिए रोज़ घर का खाना नहीं भाता बाहर का स्वाद भी चाहिए तुम्हें क्या तुम पुरुष हो इस लिए ही कहते हो ये बात निर्लज्जता से आज मैं कहती हूँ तुमसे ये बात हम औरतों को भी बदलाव चाहिए घर की बाढ़ लाँघना चाहती है हम मैं केवल देह नहीं होना चाहती हूँ हमें भी स्वाद चाहिए बदलाव का हम भी घर की मुर्गी छोड़ कर बाहर की दाल क्यूँ न खाएं, बोलो ये बात एक औरत के मुँह से तुम शायद कभी सुन नहीं पाओगे तुम्हारी नपुंसकता तुम्हारी लाज बन मुझपर टूट पड़ेगी उसी दिन और तुम मुझे कुलटा व रंडी कहोगे ही तुम पुरुष यही करते आये हो न मर्यादा और बड़प्पन के नामपर और भी कहलवाते हो पुरुषोत्तम तुम पग पग मानते हो अग्नि परीक्षा सीता की तरह आज भी औरत से क्या कसूर है हर बार औरत का ही क्यूँ उठाता है रावण पुरुष आज भी लाँघकर अपनी वह लक्ष्मण रेखा क्या उसकी नज़र में आज भी औरत कोई इंसान नहीं वरन देह ही है क्या उस में बसती नहीं है सीता हर बार परीक्षा औरत ही क्यूँ दे ये यक्ष प्रश्न औरत पूछती है कहो मेरे राम क्या निर्णय है तुम्हारा ? केवल प्रिया नहीं हूँ रात की मैं अर्धांगिनी हूँ मैं तुम्हारी , प्रिय ! आज मुझे भी जाने दो न तुम आज मैं भी देह होना चाहती हूँ मैं भी थक चुकी हूँ सीता बनकर jyoti dang
हर रोज़ मरा करती औरत जीने का ढोंग सा करती है हर सुबह वह होती है जिन्दा हर रात को औरत मरती है इस पेट की खातिर ही औरत एक रात की दुल्हन होती है होते हैं क़त्ल जज्बात कई दुखों के पहाड़ भी ढोती है हर दिन वो सहेजे आशा किरण अपने जीवन के पतझर में जाने कब होगी वसंत जिंदगी हर हाल जो सहमी रहती है कभी नाम जुड़ेगा उस से भी एक आस उसे भी रहती है मसली कुचली जाती है देह और आत्मा झर झर रोती है कभी प्रेम की रुत भी आएगी वह राह निहारा करती है उसके मन मंदिर की धरती में एक आस का अंकुर पनपा है कभी वृक्ष बनेगा पलकर के अक्सर वह सोचा करती है इस पुरुष जाति के पौधों से लेकिन मन में घबराती है वह माँ होने की नाजायज सजा हर सांस पे पाती है ये अंकुर न हो कोई औरत यही सोच सोच मरी जाती है बांटकर के समाज लोगों में कुलटा कस्तूरी कहाती है