Monday, April 23, 2012

meri neno

जिन्दगी बोलती सच्च कहो
जब सच्च कहा, जिन्दगी रो दी!!
लोगों ने कहा.......झूठ कहो
जब झूठ कहा, जिन्दगी खो दी!!

Thursday, April 19, 2012

रहते हैं एक दूसरे के सहारे......तो क्या!!

हैं नदी के दो किनारे.. तो क्या
हों तक़दीर के मारे..... तो क्या!!

मिट जाएँगे मगर साथ ना छुटेगा
हों मौज़ों के इशारे...... तो क्या!!

ना डगर का पता ..ना मंज़िलों का
हों खुदा के सहारे..........तो क्या!!

लिखा मुक़द्दर आँसुओं की रोशनाई से
हों जीवन में कितने अंधेरे तो क्या!!

ये कैसी मुहब्बत "ज्योति" कैसा पागलपन
रहते हैं एक दूसरे के सहारे......तो क्या!!

Sunday, April 15, 2012

आओ मेरे खुदा मैं साथ चलूँ , तेरे हाथ में हाथ देकर मैं

मैंने कल सोचा अपने मौन में 
ये साँस कैसे आती जाती है ?
क्यों नहीं भूल जाती आना 
कैसे अनवरत ये आती जाती है 
हर साँस से होता है नया जन्म 
जिसने दी हैं साँस हमें सोचो 
क्या कभी उसने भुलाया है हमें
हम जन्म से पहले याद करते थे 
लटके थे जब माँ की गर्भाग्नी में
फिर आये हम दुनियां में तब 
हम भूल गए अपने सरे वादे
और बना ली अपनी सोच से
अपनी एक अलग ही दुनियाँ
जब गिरे या हमें चोट लगी
याद आये हमें अपने कर्म
पढने लगे तब कोई धर्मग्रन्थ
लेकिन न चले उसकी याद के पथ
अब कहो साथ क्यों दे वो भला
हर कोई जानता है ये , है वह
परमात्मा मेरा अपने ही अन्दर
पर कोई मानता नहीं ये सच
इसलिए भटकता है वो बस
कैद अपनी सोच के दायरों में
काटता है जीने की अपनी सजा
और देता है दोष सिर्फ उसको
सौंप कर देखो तुम खुद को
हर कदम उसको दोस्त पाओगे
यही है जीने का सलीका सच्चा
आओ मेरे खुदा मैं साथ चलूँ
तेरे हाथ में हाथ देकर मैं

Tuesday, April 10, 2012

खूँखार कुत्तों के खिलाफ

अक्सर डरती हैं औरतें 
धकेलती हैं खुद को दूर 

वे खुद ही हटती हैं पीछे 
लेकिन अब परवाह नहीं है

अब औरत ये जानती है
सिंहासन केवल पुरुष का नहीं

वह भी लड़ रही है लड़ाई
भयंकर और गंभीर लड़ाई

जीवन के सत्ता सिहांसन की
बचाने के लिए अपना अस्तित्व

अपनी ही कोख से जाने हुए
खूँखार कुत्तों के खिलाफ

Sunday, April 8, 2012

दोस्ती हमारी

ये दोस्ती हमारी हमको है सबसे प्यारी 

बातों बातों में हुई थी ये दोस्ती हमारी 

शब्दों को ही जाना था देखी न थी सूरत 

इस मन को भा गयी आपकी वो सीरत 

दिल धड़कता कह रहा है , ओ मीत मेरे 

इस दिल में सजे हैं , दोस्ती के गीत तेरे

इक प्यार सोंधा सोंधा शब्दों में पाया है

तेरा हर कलाम दिल के करीब आया है

मेरे दोस्त, दोस्त रहना है चाहना हमारी

इस दोस्ती पे कर दूं दिल-ओ-जान वारी

Wednesday, April 4, 2012

आज मैं भी देह होना चाहती हूँ ,थक चुकी हूँ सीता बनकर


हे! पुरुष जब जाते हो बाहर तुम
और मिलते हो किसी मेनका से
तब हो जाती हूँ मैं तुम्हारे लिए
घर की मुर्गी दाल जैसी ही कोई
क्या तुम्हारे मन ने भी पूछा है
कभी तुमसे ये कठोर प्रश्न
घर मे मुर्गी के होते हुए भी
बाहर की दाल क्यूँ भाति है
तुम अक्सर बोलते हो मुझसे
जिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहिए
रोज़ घर का खाना नहीं भाता
बाहर का स्वाद भी चाहिए तुम्हें
क्या तुम पुरुष हो इस लिए ही
कहते हो ये बात निर्लज्जता से
आज मैं कहती हूँ तुमसे ये बात
हम औरतों को भी बदलाव चाहिए
घर की बाढ़ लाँघना चाहती है हम
मैं केवल देह नहीं होना चाहती हूँ
हमें भी स्वाद चाहिए बदलाव का
हम भी घर की मुर्गी छोड़ कर
बाहर की दाल क्यूँ न खाएं, बोलो
ये बात एक औरत के मुँह से
तुम शायद कभी सुन नहीं पाओगे
तुम्हारी नपुंसकता तुम्हारी लाज बन
मुझपर टूट पड़ेगी उसी दिन और
तुम मुझे कुलटा व रंडी कहोगे ही
तुम पुरुष यही करते आये हो न
मर्यादा और बड़प्पन के नामपर
और भी कहलवाते हो पुरुषोत्तम तुम
पग पग मानते हो अग्नि परीक्षा
सीता की तरह आज भी औरत से
क्या कसूर है हर बार औरत का ही
क्यूँ उठाता है रावण पुरुष आज भी
लाँघकर अपनी वह लक्ष्मण रेखा
क्या उसकी नज़र में आज भी औरत
कोई इंसान नहीं वरन देह ही है
क्या उस में बसती नहीं है सीता
हर बार परीक्षा औरत ही क्यूँ दे
ये यक्ष प्रश्न औरत पूछती है
कहो मेरे राम क्या निर्णय है तुम्हारा ?
केवल प्रिया नहीं हूँ रात की मैं
अर्धांगिनी हूँ मैं तुम्हारी , प्रिय !
आज मुझे भी जाने दो न तुम
आज मैं भी देह होना चाहती हूँ
मैं भी थक चुकी हूँ सीता बनकर jyoti dang

Monday, April 2, 2012

हर रोज़ मरा करती औरत

हर रोज़ मरा करती औरत 
जीने का ढोंग सा करती है 
हर सुबह वह होती है जिन्दा 
हर रात को औरत मरती है 
इस पेट की खातिर ही औरत 
एक रात की दुल्हन होती है 
होते हैं क़त्ल जज्बात कई 
दुखों के पहाड़ भी ढोती है 
हर दिन वो सहेजे आशा किरण 
अपने जीवन के पतझर में
जाने कब होगी वसंत जिंदगी
हर हाल जो सहमी रहती है
कभी नाम जुड़ेगा उस से भी
एक आस उसे भी रहती है
मसली कुचली जाती है देह
और आत्मा झर झर रोती है
कभी प्रेम की रुत भी आएगी
वह राह निहारा करती है
उसके मन मंदिर की धरती में
एक आस का अंकुर पनपा है
कभी वृक्ष बनेगा पलकर के
अक्सर वह सोचा करती है
इस पुरुष जाति के पौधों से
लेकिन मन में घबराती है
वह माँ होने की नाजायज
सजा हर सांस पे पाती है
ये अंकुर न हो कोई औरत
यही सोच सोच मरी जाती है
बांटकर के समाज लोगों में
कुलटा कस्तूरी कहाती है