Sunday, January 20, 2013

बहुत थक चुकी हूँ अब मैं
इस जिन्दगी की मुश्किलों से 
कमजोर पड़ रही हूँ लड़ते लड़ते 
लगता है जैसे मैं हार जाऊँगी 
आज तुम जो साथ नहीं हो ...मेरे
दूर कहीं ,बहुत दूर हो ...... मुझसे 
तुम्हारा स्पर्श मेरे तन मन में 
अनोखी ताज़गी भर देता था एक
जिस ताजगी में लहराता था मन
और तन मानों घुड़सवार ...तरो ताजा
हर समय तत्पर ..कुछ भी करने को
मन तो मेरा ...रहा ही कब था
रमा था तुम्हारी खुशबू में ..भौंरा
मँडराता था तुम्हारे ही आस पास
हाँ मैंने तुम्हें कुसुम कर दिया था
अब वह खुशबू ....बहुत दूर हो गयी है
मन प्राण सब ..निष्प्राण मेरे तुम बिन
तुम्हारी खुशबू ही थी मेरे स्वांस
अब मन बगिया है बहुत उदास
सूखे फूल अब भी सहेजे हूँ मैं
आँचल में अपने खिली यादों से
अब भी पाती हूँ आगोश में ,तुम्हारे
कोई दीवार नहीं है न सोच पर
इस प्रेम को तुम जानते थे या मैं
इस देह से प्रेम का इत्र अब भी
अनवरत बहता है ... मेरे प्रिय
इसे सिर्फ तुम ही जान सकते हो
हाँ .. ऋतु बदलती है ......नियम है
ये आँखों का पावस भी जरुर जायेगा
जिस दिन तुम पोंछ दोगे ...... स्वयं
मेरे अश्रु पूरित ये प्यासे नयन
तभी मिटेगी ये मेरी गहन थकन. jyoti dang

Tuesday, January 15, 2013

कभी गूंजा करती थी इन फिजाओं में 
हँसी की रिमझिम सी किलकारियां मेरी
होती थी नम आँखें खुशियों की बूँद से
किसकी नज़र खा गयी खुशियाँ मेरी
बरसा है मातमी खून का अजब मंजर
अब गीत चीखते हैं आवाज में मेरी
रूह तक मेरी घायल है देखो तो आसमां
बिजली सी तड़पती है रूह की जलन मेरी
मुझे जलपरी कहो या कहो दामिनी
घायल है आत्मा रोती इन्साफ को मेरी
किसका है दोष सोचती हूँ मैं भी अभी तक
होने की क्या औरत मुझे है ये सजा मेरी
घर में तुम्हारे भी हैं इंसानी उम्मीदें
इन्साफ उनसे करना है इल्तजा मेरी
इनको सजा मिले तो मिले रूह को सुकून
अब भी तड़पती है देखो तुम ये रूह मेरी
मुमकिन है लौट आऊँ मैं फिर जहान में
बाकी है जंग औरत की इस जहां में मेरी
कुछ तो सबक मिले की कमजोर नहीं मैं
इनको जता दूं है दुनिया हस्ती से ही मेरी
अब वक़्त आ गया है हथियार थाम लो
रो रोकर कह रही है अब रूह ये मेरी
दुर्गा बनो, काली बनो ,रानी झाँसी तुम
काटो मर्दानगी की दुम है एक आरजू मेरी
अब भी न उठे हम तो कमजोर कहेंगे
सिखलाएँ सबक कडवा है यही आरजू मेरी..

Tuesday, January 1, 2013


  • डरना हमने सीखा नहीं
    मर जायेंगे मिट जायेंगे
    झुकना हमने सीखा नहीं
    आओ सब मिल ये कसम
    खाएं
    एक खुशहाल भारत का
    सृजन करे
    दूसरों के दुखों को हरें
    • Thursday
    • 1
      जिन्दगी तुम्हे जीना चाहती थी मैं
      क्या करूं मौत ने वक़्त ही नहीं दिया
      जिन्दगी में आये थे तुम मेरी खुद बनके
      अब जा रहे हो छोड़ कर दुश्मन बनके
      तन्हा रही जिन्दगी तुम्हारे होते हुए
      अब तुम नहीं फिर भी तन्हा हूँ मैं
      ज़मीन पर रहने दीजिये मुझे
      आस्मां छूने की औकात नहीं
      मिटटी से बनी हूँ मैं आखिर
      मिटटी में ही मिल जाऊं
    आज मेरी अस्मत हुई तार तार 
    उतार कर कपडे फैंक दिया बीच बाज़ार 
    तड़प रही हूँ मैं ,आई सी यू में 
    कौन समझेगा मेरी आत्मा के दर्द को 
    आज निहथी मौत से लड़ रही हूँ मैं
    इन्साफ की चाहत में उलझी हैं 
    न जाने कब ये साँसों की डोर 
    थम जाए और रुखसत हो जाऊं
    इस नश्वर और बेदर्द संसार से
    क्या एक औरत होना गुनाह है
    चंद लम्हों की हवस मिटाने को
    ये दरिन्दे ,क्यूँ करते हैं ऐसा कृत्य
    क्या इनके सीनों में कोई दिल नहीं
    ये जानवरों से भी बदतर क्यों
    रावण को हम हर साल जलाते हैं
    क्यों ?उसने तो बस सीता का हरण
    किया था उनको छुआ तक नहीं था
    आज के इन रावणों को क्यों नहीं
    जलाया जाता सरेआम सरे राह सब के
    सामने ,क्यों इन्साफ के लिए होते हैं
    बाल सफ़ेद , क्यूँ भटकना पड़ता है दर दर
    आत्महत्या क्यों औरत को ही करनी पड़ती है
    पड़ती है ,आखिर कब तक औरत रहेगी
    इस समाज की दोयम नागरिक, ये सवाल
    औरत के जहन में नासूर सा , औरत के
    जन्म से अंत तक सालता रहता है............