Tuesday, January 1, 2013

आज मेरी अस्मत हुई तार तार 
उतार कर कपडे फैंक दिया बीच बाज़ार 
तड़प रही हूँ मैं ,आई सी यू में 
कौन समझेगा मेरी आत्मा के दर्द को 
आज निहथी मौत से लड़ रही हूँ मैं
इन्साफ की चाहत में उलझी हैं 
न जाने कब ये साँसों की डोर 
थम जाए और रुखसत हो जाऊं
इस नश्वर और बेदर्द संसार से
क्या एक औरत होना गुनाह है
चंद लम्हों की हवस मिटाने को
ये दरिन्दे ,क्यूँ करते हैं ऐसा कृत्य
क्या इनके सीनों में कोई दिल नहीं
ये जानवरों से भी बदतर क्यों
रावण को हम हर साल जलाते हैं
क्यों ?उसने तो बस सीता का हरण
किया था उनको छुआ तक नहीं था
आज के इन रावणों को क्यों नहीं
जलाया जाता सरेआम सरे राह सब के
सामने ,क्यों इन्साफ के लिए होते हैं
बाल सफ़ेद , क्यूँ भटकना पड़ता है दर दर
आत्महत्या क्यों औरत को ही करनी पड़ती है
पड़ती है ,आखिर कब तक औरत रहेगी
इस समाज की दोयम नागरिक, ये सवाल
औरत के जहन में नासूर सा , औरत के
जन्म से अंत तक सालता रहता है............

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