Friday, April 29, 2011

आत्मसम्मान


शीतल बच्चों को सुला के दुसरे कमरे में चली
गई और टी .वी , चालू किया .टी. वी. देखने में उसका मन नहीं लग रहा था
.बार बार टी .वी .के चैनल बदल रही थी.दिवार घडी की तरफ देखा तो रात के दस
बज रहे थे,टी.वी. देखते -देखते उसे झपकी आ गई . अचानक दरवाजे पर घंटी
बजी,वो हडबडा के उठी और दरवाज़ा खोलने बाहर भागी देखा तो दरवाज़े पर रमेश
था,उसका पति.उसने देखा रमेश आज भी रोज़ की तरह दारु पी कर आया था,रमेश
लड़खड़ाता हुआ कार से बाहर निकला और घर के भीतर जाने लगा थोड़ी दूर जाते ही
गिरने लगा तो शीतल ने लपक के पकड़ा और अपने कंधे का सहारा दिया तो रमेश छिटक
के दूर हो गया और शीतल को गालियाँ बकने लगा,शीतल बेचारी चुपचाप सुनती
रही,खीज के रमेश ने और जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया तो शीतल बोली "प्लीज़
चुप हो जाइये, बच्चे सो रहे हैं,"उठ जायेंगे" 
इतनी बात सुनते ही रमेश ने तडाक से एक चांटा रसीद कर दिया,शीतल के गाल पे . शीतल बेचारी सिसकने लगी।
रमेश का ये रोज़ का काम हो गया था,शराब में धुत होके आना और शीतल को गालियाँ बकना और उसकी पिटाई करना। 
विदुषी
,शीतल की छोटी बहन, जो ये सारा तमाशा देख रही थी , बहुत दुखी हुई और
चुपचाप जाके बच्चों के कमरे में जा के लेट गई ,सोचने लगी "दीदी ये सब क्यूँ
सहती हैं मैं होती तो रमेश को तीर की तरह सीधा कर देती, बेचारी दीदी कितनी
भोली है .जब से उनका विवाह हुआ है , एक दिन भी चैन की सांस नहीं ली .पिछले
१० सालों से वो रमेश जीजा जी की ज्यादती सहती आ रही हैं,क्यूँ नहीं वो इन
सब का विरोध करती ?

इतने में शीतल कमरे में आती है तो विदुषी शीतल को बोलती है "दीदी" आप ये सब क्यों सहती हो?

शीतल कुछ नहीं बोलती चुपचाप आँखों के कोर से ढलक आये आंसुओं को पोंछ के बच्चों को प्यार करके कमरे में सोने चली जाती है। 
दो दिन पश्चात शीतल और विदुषी आपस में बातें कर रही थी और बच्चे साथ वाले कमरे में खेल रहे थे।

बच्चे कमरे में आये और शीतल से बोले,माँ, भूख लगी है खाना दे दो।

शीतल
रसोई में गई और बच्चों को खाना बना के दे दिया इतने में कार का हार्न
सुनाई दिया,विदुषी ने कहा दीदी,आज जीजा जी जल्दी घर आ गये लगता है अचानक
रमेश शीतल के सामने खड़ा था  आज उसने दारू भी नहीं पी हुई थी .वो अच्छे मूड
में था . आते ही बोला,चल शीतल उठ खाना लगा,आज मिलके खायेंगे,और उसने एक
पैकेट शीतल को पकडाया।

और बोला : देख ये तेरे लिए तोहफा है खोल इसे कैसा है? 

शीतल ने पैकेट खोला तो उस में बहुत ही कीमती साडी थी . ये देखते ही शीतल का चेहरा खिल उठा।

रमेश बोला जल्दी कर आज मेरा बहुत मूड है तुझे प्यार करने को ।  
जल्दी से खाना बनाके कमरे में आ जा इतना कहके रमेश अपने कमरे में चला गया..

विदुषी
ये सब देख, सुन के अवाक् रह गई इतने में शीतल उसके पास आई और बोली
"विदुषी" आज बच्चों को तू सुला दे,ये बहुत मूड में हैं,इतना सुनते ही
विदुषी का पारा सातवें आसमान पर था वो गुस्से में बोली दीदी, आप से तो
बाजारू औरत अच्छी है क्या? आप का आत्म-सम्मान मर चुका है,जब दिल हुआ जीजा
जी का तो पीट लिया , गालियाँ बक दी और जब जरूरत पड़ी,तन की भूख मिटने के लिए
तो आपको तोहफा देके प्यार भरी बातें कर ली और एक आप हैं उनकी इन चिकनी
चुपड़ी बातों में आ जाती हैं क्यों दीदी क्यों ?आप उनकी पत्नी हो कोई घर
में रखा पालतू जानवर नहीं,जिसको जब दिल हुआ पुचकार लिया, जब दिल हुआ पीट के
एक खूंटे से बाँध दिया इतना कहते ही विदुषी बच्चों के कमरे में चली गई और
शीतल वहीँ खड़ी रह गई कुछ सोचने को मजबूर?

Friday, April 22, 2011

अंजाम

नदिया किनारे
बैठा एक शख्स
उदास
गहरी चिंता में
डूबा हुआ
उठाता पत्थर
फेंकता पानी में
एक गहरे द्वन्द
में
फंसा हुआ
बडबडाता जा रहा
एक झटके से उठा
झट से पानी में
कूद पड़ा
पानी बहुत उपर
उछला
कुछ क्षण
बाद
शांत स्थिर
कोई हलचल नहीं
ये क्या हुआ ?
उसने ये क्या किया
खुद को समाप्त कर लिया
क्यूँ ?
इतना उचाट हो चूका था
वो इस दुनिया से
इतना ऊब चूका था
अपनी जिन्दगी से
आत्महत्या करके
वो मुक्त हो गया
इस जिन्दगी के
तमाम दुखों ,झमेलों से
क्या सच में ऐसा हुआ ?
जो पीछे रह गए
उनका क्या हुआ
वो कैसे रह पायेंगे ?
कैसे सह पायेंगे ?
इतना बड़ा दुःख
अब क्या वो भी
मर जाएँ
उसके साथ
खुद को समाप्त करलें ?
क्या होगा उन बूढ़े माँ बाप का
छोटे छोटे बिलखते बच्चों का
सूनी पड़ चुकी उस मांग का
अब सिंदूर भरने वाला जो नहीं रहा
क्यूँ नहीं सोचा उस ने इन सब के
दुखों का
मर के वो कौन सा सुख दे गया
और अपनी करनी का
फल अपनों को
दे गया 

Monday, April 11, 2011

बेचारी च:च:च:च: बहुत नेक थी.. च:च:च:च:

क्षमा करती रही
वो उसको ताजिंदगी
जबकि वो
सिद्ध करते रहे
अपना स्वार्थ
और
मीठे बोल
बोलते रहे
उसकी भावनाओं
से खेलते रहे
वो इतनी भोली
सभी के
दुःख-सुख को
समझती अपना
अपनों की छोटी सी
चोट को
वो ना देख
पाती
छोड़ सब कुछ
वो दौड़ी चली
जाती
अपना सब कुछ
न्योछावर करने को
रहती तत्पर
जबकि
सभी उसके सभी अपने
स्वार्थपूर्ति के लिए
करते उसका
इस्तेमाल
वो सरल ,निर्मल
निश्छल,निष्पाप
मिटती रही घुलती रही
मानवीय संवेदनाओं में
ये सोचती रही
की एक दिन तो आयेगा
जब सभी अपने सोचेंगे
मैं क्या हूँ?
और एक दिन ऐसा भी आया
जब सब खत्म था
क्योंकि
सभी के मुंह में सिर्फ
चंद अलफाज़ ही थे
बेचारी च:च:च:च:
बहुत नेक थी.. च:च:च:च:

Sunday, April 3, 2011

किस्सा हर घर का

दीवारे घर पे मेरे जब बन गयी
तलावारे घर पे मेरे तब तन गयी

टूट गया घरौंदा जो संजोया मैंने 
जुबाँ की बात हर जुबान बन गयी 

किया एक खून पसीना को जब मैंने
मिले जब दिल तो छत भी बन गयी

हुए जब दुश्मन सगे भाई-भाई
घर में मेरे तब खाई बन गयी

रुका नही ज़हर भरा जो दिल में
हथेलियाँ भी खूनों से मेरी सन गयी

किस्सा हर घर का,है हाले दिल का
ज्योति भी रोकर इसमें ही रम गयी      

Friday, April 1, 2011

एक विश्वास हो मेरे लिए तुम जीवन में

तुम आते हो
एक सपने की
तरह
बस कुछ पल
साथ रहते हो
मेरे आंसूं
पोंछते हो
हंसाते हो
कानों के पास
धीरे से
कुछ कहते हो
समझाते हो
जिन्दगी
धुप छाँव है
जिन्दगी के रंग
अनेक हैं
तुम रोया मत करो
वो दिन नहीं रहे
ये दिन भी नहीं
रहेंगे
तुम चलती रहो
ठहरो मत
अपना कर्म करती
चलो
पीछे मुड़ के मत
देखो
देखना एक दिन
दुनिया तुम्हारे
क़दमों में
होगी
तुम दुनिया से
नहीं
दुनिया तुम से
होगी
मैं नही जानती तुम कौन हो ?
शायद एक विश्वास हो
मेरे लिए तुम जीवन में