हे! पुरुष जब जाते हो बाहर तुम
और मिलते हो किसी मेनका से
तब हो जाती हूँ मैं तुम्हारे लिए
घर की मुर्गी दाल जैसी ही कोई
क्या तुम्हारे मन ने भी पूछा है
कभी तुमसे ये कठोर प्रश्न
घर मे मुर्गी के होते हुए भी
बाहर की दाल क्यूँ भाति है
तुम अक्सर बोलते हो मुझसे
जिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहिए
रोज़ घर का खाना नहीं भाता
बाहर का स्वाद भी चाहिए तुम्हें
क्या तुम पुरुष हो इस लिए ही
कहते हो ये बात निर्लज्जता से
आज मैं कहती हूँ तुमसे ये बात
हम औरतों को भी बदलाव चाहिए
घर की बाढ़ लाँघना चाहती है हम
मैं केवल देह नहीं होना चाहती हूँ
हमें भी स्वाद चाहिए बदलाव का
हम भी घर की मुर्गी छोड़ कर
बाहर की दाल क्यूँ न खाएं, बोलो
ये बात एक औरत के मुँह से
तुम शायद कभी सुन नहीं पाओगे
तुम्हारी नपुंसकता तुम्हारी लाज बन
मुझपर टूट पड़ेगी उसी दिन और
तुम मुझे कुलटा व रंडी कहोगे ही
तुम पुरुष यही करते आये हो न
मर्यादा और बड़प्पन के नामपर
और भी कहलवाते हो पुरुषोत्तम तुम
पग पग मानते हो अग्नि परीक्षा
सीता की तरह आज भी औरत से
क्या कसूर है हर बार औरत का ही
क्यूँ उठाता है रावण पुरुष आज भी
लाँघकर अपनी वह लक्ष्मण रेखा
क्या उसकी नज़र में आज भी औरत
कोई इंसान नहीं वरन देह ही है
क्या उस में बसती नहीं है सीता
हर बार परीक्षा औरत ही क्यूँ दे
ये यक्ष प्रश्न औरत पूछती है
कहो मेरे राम क्या निर्णय है तुम्हारा ?
केवल प्रिया नहीं हूँ रात की मैं
अर्धांगिनी हूँ मैं तुम्हारी , प्रिय !
आज मुझे भी जाने दो न तुम
आज मैं भी देह होना चाहती हूँ
मैं भी थक चुकी हूँ सीता बनकर jyoti dang
और मिलते हो किसी मेनका से
तब हो जाती हूँ मैं तुम्हारे लिए
घर की मुर्गी दाल जैसी ही कोई
क्या तुम्हारे मन ने भी पूछा है
कभी तुमसे ये कठोर प्रश्न
घर मे मुर्गी के होते हुए भी
बाहर की दाल क्यूँ भाति है
तुम अक्सर बोलते हो मुझसे
जिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहिए
रोज़ घर का खाना नहीं भाता
बाहर का स्वाद भी चाहिए तुम्हें
क्या तुम पुरुष हो इस लिए ही
कहते हो ये बात निर्लज्जता से
आज मैं कहती हूँ तुमसे ये बात
हम औरतों को भी बदलाव चाहिए
घर की बाढ़ लाँघना चाहती है हम
मैं केवल देह नहीं होना चाहती हूँ
हमें भी स्वाद चाहिए बदलाव का
हम भी घर की मुर्गी छोड़ कर
बाहर की दाल क्यूँ न खाएं, बोलो
ये बात एक औरत के मुँह से
तुम शायद कभी सुन नहीं पाओगे
तुम्हारी नपुंसकता तुम्हारी लाज बन
मुझपर टूट पड़ेगी उसी दिन और
तुम मुझे कुलटा व रंडी कहोगे ही
तुम पुरुष यही करते आये हो न
मर्यादा और बड़प्पन के नामपर
और भी कहलवाते हो पुरुषोत्तम तुम
पग पग मानते हो अग्नि परीक्षा
सीता की तरह आज भी औरत से
क्या कसूर है हर बार औरत का ही
क्यूँ उठाता है रावण पुरुष आज भी
लाँघकर अपनी वह लक्ष्मण रेखा
क्या उसकी नज़र में आज भी औरत
कोई इंसान नहीं वरन देह ही है
क्या उस में बसती नहीं है सीता
हर बार परीक्षा औरत ही क्यूँ दे
ये यक्ष प्रश्न औरत पूछती है
कहो मेरे राम क्या निर्णय है तुम्हारा ?
केवल प्रिया नहीं हूँ रात की मैं
अर्धांगिनी हूँ मैं तुम्हारी , प्रिय !
आज मुझे भी जाने दो न तुम
आज मैं भी देह होना चाहती हूँ
मैं भी थक चुकी हूँ सीता बनकर jyoti dang
तुम अक्सर बोलते हो मुझसे
ReplyDeleteजिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहिए
रोज़ घर का खाना नहीं भाता
बाहर का स्वाद भी चाहिए तुम्हें
क्या तुम पुरुष हो इस लिए ही
कहते हो ये बात निर्लज्जता से
आज मैं कहती हूँ तुमसे ये बात
हम औरतों को भी बदलाव चाहिए
घर की बाढ़ लाँघना चाहती है हम
मैं केवल देह नहीं होना चाहती हूँ
हमें भी स्वाद चाहिए बदलाव का
हम भी घर की मुर्गी छोड़ कर
बाहर की दाल क्यूँ न खाएं, बोलो
ये बात एक औरत के मुँह से
तुम शायद कभी सुन नहीं पाओगे
अरे ज्योति जी ये क्या कह दिया ………ये यहाँ के पुरुषों को हजम नही होगा ………बचकर रहियेगा कहीं अगला मोर्चा आपके यहाँ ही ना लग जाये ………मेरे यहाँ तो लग चुका है …………बहुत बडी बात कह दी आपने वो भी खुल्लम खुल्ला ………बच के रहियेगा …………जल्द ही आपके विरुद्ध अभियान चालू ना हो जाये …………आपने तो उनके अस्तित्व पर ही सवाल लगा दिया है मगर सटीक सवाल किया है और आपके हौसले की दाद देती हूँ।
आज मैं भी देह होना चाहती हूँ
ReplyDeleteमैं भी थक चुकी हूँ सीता बनकर...सुंदर सार्थक एवं सशक्त अभिव्यक्ति
वाह जी! क्या बात कही! क़ाबिले तारीफ़! आपके हौसले की दाद देनी चाहिए...बहुत दुरुस्त
ReplyDeleteइसे भी देखें-
‘घर का न घाट का’
BAHUT KHUB ....EK NAI SOCH H YE......SACHI ME....
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