मेरी रकाबत का सिला दिए जा रहे तुम
बद्दुआओ में कैसे दुआ दिए जा रहे तुम
समझोगे किस तरह मेरे दिल का दर्द
खाली दामन में अश्रु पिए जा रहे तुम
जिसने ज़मीर बेचा है दौलत के वास्ते
उन रकीबों की बस्ती में चले जा रहे तुम
नींद आती नही तीरगी मिटती नही
कैसे गुर्बत में बोझिल हुए जा रहे तुम
दे ना सके कोई लम्हा सुकूँ का कभी
विष हाथों से अपने पीए जा रहे तुम
चंद कतरे साकीं के होठों में सजाकर
कैफे-दौलत में अकसर जिए जा रहे तुम
नाकामियों के साए "ज्योति" जी लेती
छल फरेबों से मंजिलें छुए जा रहे तुम
बहुत ही बढ़िया.
ReplyDeleteढेरों बसंतई सलाम.
काश बाकी ग्रहणीयां आपसे कुछ सीख पाती
ReplyDeleteआपके ब्लाग से आपके विचारों की सुन्दरता झलक रही है