Wednesday, September 29, 2010

गरीबी

घर से बाहर निकली!
एक छोटी सी लड़की मिली!
तन पे कपड़ों के नाम पे चिथड़े थे!
पाओं में टूटी सी चप्पल थी!
चेहरे पे मासूमियत थी!
हाथ माँगने के लिए उठे थे!
आँखों में एक आस थी!
आज भी कुछ मिलेगा!
जिंदगी का कुछ वक़त,
तो  अच्छा  गुजरेगा!
दिल से एक हुक उठी!
हे परमात्मा मैने तुम्हे,
एक चिट्ठी लिखी!
कैसी है तेरी खुदाई!
तुमने यह कैसी दुनिया बनाई!
कहीं खाने, पहनने, रहने के,
लाखों साधन पड़े हैं!
कहीं एक रोटी के टुकड़े के.
लिए माँगना पड़ता है!
तुमने यह दुनिया ही क्यूँ बनाई!
तुझे ज़रा सी दया भी ना आई!

1 comment: