वो आयेगा-आयेगा कह कर जिन्दगी गुज़ार दी
बूढी माँ ने जैसे साँसे उधार ली
वो कहता रहा अकड़ के बूढ़े शज़र से
मैंने तो बुड्ढे दुनिया सुधार दी
बनायी जब उसने दीवारें जो घर में
माँ के अरमानों की बस्तियाँ उजाड़ दी
जिनको उंगली पकड़ के चलाया था कभी
आज पैरों में बेवाइयां उन ने हज़ार दी
जिसने विनती करी दो निवालों के खातिर
उसने जिन्दगी की खुशियाँ बेटों पे निसार दी
चले गये दुनिया से फकत इंतज़ार करते करते
बेटों ने उनके ना खुशियाँ भी दो-चार दी
आयेगा बुढापा उनका भी "ज्योति" एक दिन
जिसने माँ बाप को अपने बैसाखियाँ उधार दी
बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteसादर
आज 19- 07- 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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उफ़ …………हकीकत का सटीक चित्रण कर दिया।
ReplyDeleteयही वह अवस्था होती है जब स्वयं का "बेटा" होना तनिक याद दिलाता है। समय चक्र है………रचना आत्मव्यथा का चित्रण करती हुई…सुंदर्।
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