मैं एक वेश्या हूँ समाज़ की नज़र में
क्योंकि मैं अपना ही जिश्म बेचती हूँ
ये मेरा जिश्म ही है मेरी दुकान एक
समाज के भूखे भेड़िये दरिन्दे हैं ग्राहक
रोज़ बंटती हूँ में उनमें भूख की तरह
खेलते हैं शरीर की भूख मिटाने वे रोज़
और चले जाते हैं घर, काट कर बनवास
तन जंगल में अपनी अपूर्ण हवस का
मगर वे फिर भी सभ्य है, पुरुष हैं
उनसे ही चलता है घर और समाज
सम्मान भी वही पाते हैं , हर और से
मैं रह जाती हूँ बनकर सिर्फ एक गाली
जो केवल रात में भाति है हर सभ्य को
हर कोई मचलता है अपनाने को मुझे
पर बस दुल्हन एक रात की ही तरह
मैं भावना पोंछने का तौलिया मात्र हूँ
कोई तौलिया लपेटकर बाहर नहीं जाता
वह तो नंगापन ढँकता है हर एक का
और मैं ऐसा तौलिया जिसके सामने सब
आते ही हैं केवल नंगे होने के लिए
मैं प्यास बुझाती हूँ अतृप्त पुरुषों की
वे मेरे रूप और जिश्म से भरते हैं
अपनी मन वासना के लोटे पर लोटे
पर ये कुआं हमेशा उपेक्षित ही रहा है
कोई नहीं सुनता अंतरात्मा की आवाज़
कोई नहीं समझता मुझे यहाँ पर इंसान
रोज़ लोटता है सम्मान पैरों में मेरे मगर
मुझे कोई सम्मान नहीं देता अँधा समाज
हाँ, विशेषण जरुर दिए जाते हैं मेरे ही
कुलटा, रंडी ,करमजली कहकर अक्सर
जब समाज बनता है सब के लिए बाड़
कहाँ खो जाते है तुम्हारे वे सरे संस्कार?
जब तुम आते हो रोज चढ़कर मेरे द्वार
मैं तो करती हूँ सदा ही तुम्हारा सत्कार
और तुम देते हो मुझे दुत्कार ही दुत्कार
हे! सामाजिक ढोंग रचने वाले पुरुष
तुम्हें सिफ धिक्कार है..नारी का धिक्कार
तुम केवल वासना पूज सकते हो मन में
हटा डालो अपनी सारी देवियाँ अपने मंदिर की
तुम नारी की पूजा न सके सभ्य पुरुष
तुम से देवी की पूजा भी न हो सकेगी jyoti dang
क्योंकि मैं अपना ही जिश्म बेचती हूँ
ये मेरा जिश्म ही है मेरी दुकान एक
समाज के भूखे भेड़िये दरिन्दे हैं ग्राहक
रोज़ बंटती हूँ में उनमें भूख की तरह
खेलते हैं शरीर की भूख मिटाने वे रोज़
और चले जाते हैं घर, काट कर बनवास
तन जंगल में अपनी अपूर्ण हवस का
मगर वे फिर भी सभ्य है, पुरुष हैं
उनसे ही चलता है घर और समाज
सम्मान भी वही पाते हैं , हर और से
मैं रह जाती हूँ बनकर सिर्फ एक गाली
जो केवल रात में भाति है हर सभ्य को
हर कोई मचलता है अपनाने को मुझे
पर बस दुल्हन एक रात की ही तरह
मैं भावना पोंछने का तौलिया मात्र हूँ
कोई तौलिया लपेटकर बाहर नहीं जाता
वह तो नंगापन ढँकता है हर एक का
और मैं ऐसा तौलिया जिसके सामने सब
आते ही हैं केवल नंगे होने के लिए
मैं प्यास बुझाती हूँ अतृप्त पुरुषों की
वे मेरे रूप और जिश्म से भरते हैं
अपनी मन वासना के लोटे पर लोटे
पर ये कुआं हमेशा उपेक्षित ही रहा है
कोई नहीं सुनता अंतरात्मा की आवाज़
कोई नहीं समझता मुझे यहाँ पर इंसान
रोज़ लोटता है सम्मान पैरों में मेरे मगर
मुझे कोई सम्मान नहीं देता अँधा समाज
हाँ, विशेषण जरुर दिए जाते हैं मेरे ही
कुलटा, रंडी ,करमजली कहकर अक्सर
जब समाज बनता है सब के लिए बाड़
कहाँ खो जाते है तुम्हारे वे सरे संस्कार?
जब तुम आते हो रोज चढ़कर मेरे द्वार
मैं तो करती हूँ सदा ही तुम्हारा सत्कार
और तुम देते हो मुझे दुत्कार ही दुत्कार
हे! सामाजिक ढोंग रचने वाले पुरुष
तुम्हें सिफ धिक्कार है..नारी का धिक्कार
तुम केवल वासना पूज सकते हो मन में
हटा डालो अपनी सारी देवियाँ अपने मंदिर की
तुम नारी की पूजा न सके सभ्य पुरुष
तुम से देवी की पूजा भी न हो सकेगी jyoti dang
कोई नहीं सुनता अंतरात्मा की आवाज़
ReplyDeleteकोई नहीं समझता मुझे यहाँ पर इंसान
रोज़ लोटता है सम्मान पैरों में मेरे मगर
मुझे कोई सम्मान नहीं देता अँधा समाज
बहुत सुंदर सार्थक भावअभिव्यक्ति // बेहतरीन रचना //
कमेन्ट बॉक्स से वर्डवेरीफिकेसन हटा ले कमेंट्स करने में परेशानी
और समय बर्वाद होता है,...
MY RECENT POST ....काव्यान्जलि ....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
एक कटु सत्य को बेहद संजीदगी से उकेरा है।
ReplyDeleteयथार्थ का आईना दिखती एक गंभीर विषय पर बहुत ही सशक्त एवं प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteसमय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
bahu hi sundar aur dil ko chune baali kathan hai ye aaj ke jamane ke liye ye dhikkar har inssan ko ye kathan padhani chaye taki ye kathan se kuch Sikh mile
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