तब से वो मुझे आज़माने लगे हैं!
गैर जो उनके घर आने जाने लगे हैं!!
खारों की रफकत हुई उस दिन से!
नज़रें वो जब से चुराने लगे हैं!!
देज़ो जो, रंगत मिली फीकी फीकी!
तर्कश के तीर पुराने लगे हैं!!
बस छाँव नहीं, वो देता बहुत कुछ!
पतझड़ के मौसम आने जाने लगे हैं!!
दिया जो ज़हर मुझको धीरे धीरे!
वो रकीबों से हाथ मिलने लगें हैं!!
"ज्योति"तेरी तक़दीर रूठी कुछ ऐसे!
जिसको बनाने में तुझे ज़माने लगे हैं!!
jyoti dang
गैर जो उनके घर आने जाने लगे हैं!!
खारों की रफकत हुई उस दिन से!
नज़रें वो जब से चुराने लगे हैं!!
देज़ो जो, रंगत मिली फीकी फीकी!
तर्कश के तीर पुराने लगे हैं!!
बस छाँव नहीं, वो देता बहुत कुछ!
पतझड़ के मौसम आने जाने लगे हैं!!
दिया जो ज़हर मुझको धीरे धीरे!
वो रकीबों से हाथ मिलने लगें हैं!!
"ज्योति"तेरी तक़दीर रूठी कुछ ऐसे!
जिसको बनाने में तुझे ज़माने लगे हैं!!
jyoti dang
तब से वो मुझे आज़माने लगे हैं!
ReplyDeleteगैर जो उनके घर आने जाने लगे हैं!!बहुत ही खुबसूरत....
खुबसूरत कविता
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर
ब्लोगोदय नया एग्रीगेटर
पितृ तुष्टिकरण परियोजना
वो रकीबों से हाथ मिलाने आगे हैं ...
ReplyDeleteवाह ... क्या अंदाज़ है कहने का ... बहुत उम्दा ...
वाह बहुत खूबसूरत गज़ल दिल को छू गयी।
ReplyDeleteखारों की रफकत हुई उस दिन से!
ReplyDeleteनज़रें वो जब से चुराने लगे हैं!!very nice...