Tuesday, January 15, 2013

कभी गूंजा करती थी इन फिजाओं में 
हँसी की रिमझिम सी किलकारियां मेरी
होती थी नम आँखें खुशियों की बूँद से
किसकी नज़र खा गयी खुशियाँ मेरी
बरसा है मातमी खून का अजब मंजर
अब गीत चीखते हैं आवाज में मेरी
रूह तक मेरी घायल है देखो तो आसमां
बिजली सी तड़पती है रूह की जलन मेरी
मुझे जलपरी कहो या कहो दामिनी
घायल है आत्मा रोती इन्साफ को मेरी
किसका है दोष सोचती हूँ मैं भी अभी तक
होने की क्या औरत मुझे है ये सजा मेरी
घर में तुम्हारे भी हैं इंसानी उम्मीदें
इन्साफ उनसे करना है इल्तजा मेरी
इनको सजा मिले तो मिले रूह को सुकून
अब भी तड़पती है देखो तुम ये रूह मेरी
मुमकिन है लौट आऊँ मैं फिर जहान में
बाकी है जंग औरत की इस जहां में मेरी
कुछ तो सबक मिले की कमजोर नहीं मैं
इनको जता दूं है दुनिया हस्ती से ही मेरी
अब वक़्त आ गया है हथियार थाम लो
रो रोकर कह रही है अब रूह ये मेरी
दुर्गा बनो, काली बनो ,रानी झाँसी तुम
काटो मर्दानगी की दुम है एक आरजू मेरी
अब भी न उठे हम तो कमजोर कहेंगे
सिखलाएँ सबक कडवा है यही आरजू मेरी..

1 comment:

  1. अब भी न उठे हम तो कमजोर कहेंगे
    सिखलाएँ सबक कडवा है यही आरजू मेरी..

    ...बिल्कुल सच कहा है...हमें जब तक हर नारी को न्याय न मिले, इस ज़ज्बे को बनाये रखना है...बहुत सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति..

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