Tuesday, January 24, 2012

कलम

आज कलम चुपचाप 
एक कोने में पड़ी 
रो रही है 
खुद की बेबसी पे 
वो सीलन भरा कमरा 
टूटी हुई मेज़ पे
अनगिनत पुरानी सी
किताबें
धुल फांकती
एक पुरानी
फटी सी डायरी
कभी जिस पे
लिखे गए थे
चंद शब्द
जिन्दगी के कुछ लम्हे
अपनी यादों में संजोये
कुछ खट्टे
कुछ मीठे
पल संजोये
सोचती
आज कोई नहीं
लिखने वाला
कुछ भी
मैं चुपचाप पड़ी
हूँ
एक कोने में
कोई नहीं
आज मुझे
पूछने वाला
क्यूंकि आज मैं
पुरानी हो गई
जिसका कोई
मुल्य अब नहीं
इसलिए फैंक दी गई
एक कोने में



ye un budhe logon ko samarpit jinko unki aoulaad faltu samjhke ghar ke ek kone me ya vridh ashram faink dete hain

3 comments:

  1. फिर से उठाईये कलम नयी लगेगी ..

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  2. संगीता जी की बात से सहमत हूँ

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