Sunday, April 3, 2011

किस्सा हर घर का

दीवारे घर पे मेरे जब बन गयी
तलावारे घर पे मेरे तब तन गयी

टूट गया घरौंदा जो संजोया मैंने 
जुबाँ की बात हर जुबान बन गयी 

किया एक खून पसीना को जब मैंने
मिले जब दिल तो छत भी बन गयी

हुए जब दुश्मन सगे भाई-भाई
घर में मेरे तब खाई बन गयी

रुका नही ज़हर भरा जो दिल में
हथेलियाँ भी खूनों से मेरी सन गयी

किस्सा हर घर का,है हाले दिल का
ज्योति भी रोकर इसमें ही रम गयी      

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