Monday, April 2, 2012

हर रोज़ मरा करती औरत

हर रोज़ मरा करती औरत 
जीने का ढोंग सा करती है 
हर सुबह वह होती है जिन्दा 
हर रात को औरत मरती है 
इस पेट की खातिर ही औरत 
एक रात की दुल्हन होती है 
होते हैं क़त्ल जज्बात कई 
दुखों के पहाड़ भी ढोती है 
हर दिन वो सहेजे आशा किरण 
अपने जीवन के पतझर में
जाने कब होगी वसंत जिंदगी
हर हाल जो सहमी रहती है
कभी नाम जुड़ेगा उस से भी
एक आस उसे भी रहती है
मसली कुचली जाती है देह
और आत्मा झर झर रोती है
कभी प्रेम की रुत भी आएगी
वह राह निहारा करती है
उसके मन मंदिर की धरती में
एक आस का अंकुर पनपा है
कभी वृक्ष बनेगा पलकर के
अक्सर वह सोचा करती है
इस पुरुष जाति के पौधों से
लेकिन मन में घबराती है
वह माँ होने की नाजायज
सजा हर सांस पे पाती है
ये अंकुर न हो कोई औरत
यही सोच सोच मरी जाती है
बांटकर के समाज लोगों में
कुलटा कस्तूरी कहाती है

1 comment:

  1. ओह! सारी पीड़ा ही उड़ेल दी…… अच्छी भावाभिव्यक्ति

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