Monday, July 18, 2011

बुढापा

वो आयेगा-आयेगा कह कर जिन्दगी गुज़ार दी 
बूढी माँ ने जैसे साँसे उधार ली 

वो कहता रहा अकड़ के बूढ़े शज़र से
मैंने तो बुड्ढे दुनिया सुधार दी 

बनायी जब उसने दीवारें जो घर में 
माँ के अरमानों की बस्तियाँ उजाड़ दी 

जिनको उंगली पकड़ के चलाया था कभी 
आज पैरों में बेवाइयां उन ने हज़ार दी 

जिसने विनती करी दो निवालों के खातिर 
उसने जिन्दगी की खुशियाँ बेटों पे निसार दी 

चले गये दुनिया से फकत इंतज़ार करते करते 
बेटों ने उनके ना खुशियाँ भी दो-चार दी 

आयेगा बुढापा उनका भी "ज्योति" एक दिन 
जिसने माँ बाप को अपने बैसाखियाँ उधार दी 

Friday, July 15, 2011

क्यों मैंने ये दुनिया बनाई

देखा जब मैंने वो मंज़र 
हर तरफ फैला 
खूनी समंदर 
चारो ओर चीख पुकार 
लहू-लुहान तड़पते लोग 
हर तरफ मची भगदड़ 
हर आँख हुई नम
चारो तरफ
उठे मदद 
के हाथ 
छुपाये अपने गम 
सोचने पे मजबूर हुआ 
आज भगवान् 
भी सोच रहा मैंने 
ये दुनिया क्यों बनाई 
ये इंसान रूपी जीव 
को हुआ क्या 
इतना हैवान 
अपने स्वार्थ हेतु 
क्यों मार रहा 
अपने ही भाई बंधू को 
ये इंसान जानवर क्यों 
बन रहा 
अपनों के सीने में 
खंज़र क्यूँ घोप रहा 
इस स्वर्ग रूपी धरती को 
जहन्नुम क्यों बना रहा 
धिक्कार है मुझे 
खुद पे 
क्यों मैंने ये दुनिया बनाई ?

Friday, July 8, 2011

तेरी यादों में खो करके

हम दर्द में जीतें हैं,कुछ अश्क बहा करके,कुछ तन्हा हो करके 
इन सर्द हवाओं में,हम आह भरा करते,तेरी यादों में खो करके 

पलके नम हो जाती हैं,इन हिज्र की रातों में,
कुछ गमजदा हो करके,तेरी याद सफ़र करके 

पत्थर की मूरत में,पत्थर का दिल ही रहा,
जो तोड़ के जाते हैं,शीशे का दिल समझ करके 

चलती हुई राहों में,पीपल की छाँव में कहीं धूप भी आती है,
मौसम बदल करके,कभी रूप बदल करके 

टूटी हुई कश्ती में,हम शब भर सफर करते,
कभी रेत के साहिल पे,कभी दरिया बदल करके

हर घड़ी ही उलझी हूँ,अपने ही मुकद्दर से,
कभी वक़्त बदल करके,तकदीर बदल करके

इस राहे सफ़र मेरे,पत्थर हैं मिले मुझको,
कभी जख्म दिया दिल पे,कभी ठोकर बन करके 

तनहा हम रोते हैं,अपने ही घर में ही,
कभी मीरे सुखन सुनके,कभी दर्दे ग़ज़ल बन करके 

जिन्दगी की रवायत में,रस्ता है कठिन लेकिन,
तुझे साथ निभाना है,दो जिस्म एक जां बन करके

Tuesday, July 5, 2011

याद

बात दिल की जुबां पे दबी रह गयी
जो हँसी थी तुम्हारी हँसी रह गयी

देखा तुमने जो नज़रे झुकाते हुए
आँख हिरनी की कैसी झुकी रह गयी

जब से गये तुम मायूस मैं बैठा रहा
रात पलकों में फिरसे जगी रह गयी

आईने के सामने अब मैं जाता नही
आँखों में जो तुम्हारे नमी रह गयी

तेरी आवाज़ को सुने ज़माना हुआ
लम्स था फिर क्या कमी रह गयी

Friday, July 1, 2011

रेत के दरिया में है जैसे कोई ठहरा

याद आया है आज फिर उसका चेहरा
उस गुल बदन का जो है नुरानी चेहरा

लोग कहते हैं दीदार ए चाँद नही मुमकिन
देख कर ज़िंदा हूँ आज भी उसका चेहरा

फासले और बढ़ गये दूर हुए मुझसे
राहे सफ़र में जब लग गया उसका पहेरा

हो गया है वो अगर जुदा मुझसे
राज़ भी रहा राज़ दिल में उसके गहरा

जाने वालो को कैसे भूले ए "ज्योति"
रेत के दरिया में है जैसे कोई ठहरा